
यह लड़ाई शोषितों और शासकों के बीच की है. इसलिए ‘नेपाल का पेरिस’ कहा जाने वाला वीरगंज तबाह हो चुका है. व्यापारी वीरगंज छोड़कर चले गए और उनके साथ ही शहर की रौनक भी चली गई. वरना, दशहरे के मौके पर वीरगंज की सड़कें इस क़दर सूनी नहीं दिखतीं.”
भारत-नेपाल सीमा पर बसे वीरगंज के सक्रिय सोशल एक्टिविस्ट दिलीप राज कार्की यह कहते हुए भावुक हो जाते हैं.
उन्होंने बताया कि 19, 20 और 21 सितंबर को जब काठमांडू में सरकार संविधान लागू होने की पहली सालगिरह पर उत्सव मना रही थी, उसी दौरान वीरगंज में संविधान की कॉपियां जलाई गईं. तमाम सरहदी क़स्बों में काला दिवस मनाया गया.
पिछले साल 23 सितंबर को सरहदी क़स्बों में मधेशी आंदोलन की शुरुआत हुई थी.

आंदोलनकारियों ने इस दौरान भारत-नेपाल बोर्डर की नाकेबंदी कर दी थी. 4 महीने तक चले आंदोलन के दौरान 52 लोग मारे गए थे. नेपाल सरकार ने इनके लिए 10 लाख रुपये के मुआवजा की घोषणा की थी.
आंदोनलकारी इन्हें ‘मधेशी शहीद’ के तौर पर प्रचारित करते हैं. वीरगंज के घंटाघर चौक पर बीपी कोइराला उद्यान के सामने लगा ‘मधेशी शहीद पार्क निर्माण स्थल’ का बोर्ड इसकी तस्दीक करता है.
आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेने वाली नेपाली सद्भभावना पार्टी के सदस्य निज़ामुद्दीन सुब्हानी का आरोप है कि कई लोगों को अभी तक मुआवज़ा नहीं मिला है.

उनका कहना है, “पहले भारतीय लड़की की शादी नेपाल में होने के साथ ही उसे नेपाली नागरिकता मिल जाती थी. नए संविधान में शादी के बाद सात साल यहां रहने की शर्त के बाद नागरिकता का प्रावधान किया गया है”.
उनके मुताबिक , “इस तरह के कई और प्रावधान हैं, जिसमें मधेशियों के हक़ पर हमला किया गया है. अगर संविधान संशोधन नहीं किया गया, तो हम लोग फिर से आंदोलन करेंगे.”
वहीं नेपाल के प्रतिष्ठित मीडिया समूह ‘कांतिपुर’ के पत्रकार शंकर आचार्य के मुताबिक़ हालत अब सामान्य है, लेकिन आंदोलन फिर से शुरू होने का डर भी है.
यूं तो नेपाल में रहने वाले लोग सीधे-सीधे भारत के ख़िलाफ़ बोलने से बचते हैं. लेकिन तमाम लोगों ने यह कहा कि पिछले साल का मधेशी आंदोलन भारत के सपोर्ट के बगैर नहीं चल सकता था.
वीरगंज चैंबर ऑफ़ कामर्स के वरिष्ठ उपाध्यक्ष ओमप्रकाश शर्मा ने बीबीसी से कहा, “रक्सौल (भारत) के भाजपा नेता महेश शर्मा ने मधेशी आंदोलनकारियों के लिए खाने की व्यवस्था की. उनके यहां चार महीने तक भंडारा चलता रहा. इससे आप समझ सकते हैं कि आंदोलन किसके बूते चल रहा था”.
कांतिपुर के पत्रकार शंकर आचार्य ने बताया कि नेपाली मीडिया का आकलन था कि मधेशी आंदोलन भारत प्रायोजित था, चाहे वह राजनीतिक स्तर पर हो या फिर प्रशासनिक, लेकिन कहीं न कहीं इसमें भारत की भूमिका थी.
जहाँ तक कारोबार की बात है तो ओमप्रकाश शर्मा का कहना है कि मधेशी आंदोलन की वजह से खरबों रुपये का नुकसान हुआ है.
वो बताते हैं, “यहां का 30 फ़ीसद व्यापार भैरवा, बुटवल और नारायणघाट शिफ़्ट हो गया और सरकार ने भी वीरगंज को नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया है. ऐसे में हालत पूरी तरह सामान्य होने में वक़्त लगेगा”.
पत्रकार शंकर आचार्य के मुताबिक, “वीरगंज बॉर्डर को ‘गेटवे ऑफ़ नेपाल’ कहा जाता है. यहां का कस्टम ऑफ़िस नेपाल को सबसे ज़्यादा राजस्व देता है. आंदोलन के दौरान इसमें 65 फ़ीसदी गिरावट दर्ज की गई थी”.
वो बताते हैं, “सरकार ने इस साल यहां का टारगेट एक खरब सात अरब रुपये तय किया है. पहले क्वार्टर में इसकी उपलब्धि ठीक है. अगर फिर से आंदोलन हुआ, तो नेपाल की अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का लगेगा.”
वीरगंज के होटलों में आम तौर पर काफी चहल-पहल रहती है. बार में डीजे अंग्रेज़ी, नेपाली और बालीवुड के गाने का बेस बढ़ता है तो सैकड़ों युवा थिरकने लगते हैं.
होटल मकालु में 18 सालों से काम कर रहे सीनियर फ्रंट डेस्क ऑफ़िसर मो. सैयाद अंसारी ने बीबीसी को बताया कि आंदोलन के दौरान इसे दो महीने तक बंद रखना पड़ा था.
उनका कहना है कि ऐसी नौबत पहले कभी नहीं आई थी, लेकिन अब जाकर वीरगंज का माहौल वापस पटरी पर लौटने लगा है.