
भारत प्रशासित कश्मीर की राजनीति इन दिनों एक बड़े संकट के दौर में पहुँच गई है. उड़ी में सेना पर हुए आतंकवादी हमले ने हालात को और बिगाड़ दिया है.
कश्मीर घाटी की जनता के बीच नेशनल कांफ़्रेंस की साख काफ़ी गिर चुकी है और अब विकल्प के रूप में उभरी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की साख भी नीचे जा रही है.
ये दोनों पार्टियाँ कभी न कभी कांग्रेस और भाजपा के साथ गठजोड़ बना चुकी हैं. इन दोनों के अलावा तीसरी बड़ी राजनीतिक ताक़त कश्मीर में नहीं है .
पीडीपी का मुख्य आधार-क्षेत्र दक्षिण कश्मीर है जहाँ से उनके ज़्यादातर विधायक जीते हैं और यही इलाक़ा आजकल सबसे ज़्यादा असंतोष का शिकार है.
यहीं सबसे ज़्यादा पत्थरबाज़ी होती है और इसे फ़ौज के हवाले करने के बारे में सोचना पड़ रहा है.

हाल में ईद की शाम जब श्रीनगर में ज़बरदस्त क़र्फ्यू लगा हुआ था तो उस वक़्त मैं, संतोष भारतीय और टीवी बहसों में मेरे साथी अशोक वानखेडे, तारिक़ हमीद कर्रा के घर में बैठ कर ‘मसला-ए-कश्मीर’ पर लम्बी चर्चा कर रहे थे.
कर्रा ने पीडीपी के उम्मीदवार के रूप में श्रीनगर बडगाम चुनाव क्षेत्र से साल 2014 के लोकसभा चुनाव में नेशनल कांफ़्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला को हराया था. वो साल 1999 में बनी पीडीपी के संस्थापक महामंत्री भी थे.
कर्रा ने उस चर्चा में हमें संकेत दे दिया था कि वे महबूबा मुफ़्ती के साथ ज़्यादा दिन तक नहीं रह सकेंगे.
वैसे भी महबूबा से उनकी बहुत दिनों से मुलाक़ात नहीं हुई थी. दो दिन बाद ही कर्रा ने संसद की सदस्यता और पीडीपी से इस्तीफ़ा दे दिया.
पीडीपी ने लोकसभा चुनाव और फिर विधानसभा चुनाव में नेशनल कांफ़्रेंस को हराया था.
ख़ास बात यह है कि लोकसभा चुनाव के दौरान उनके निशाने पर नेशनल कांफ़्रेंस थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा पर निशाना साधा था.

कर्रा और ज़़फर मिनाज़ जैसी पीडीपी की लोकप्रिय हस्तियाँ पूरे कश्मीर में घूम-घूमकर वोटरों को बता रही थीं कि भाजपा अगर सत्ता में आ गई तो कश्मीरी पहचान पर बड़ा हमला हो सकता है.
यह प्रचार कामयाब रहा और पीडीपी आगे निकल गई. लेकिन, उस समय कर्रा और मिनाज़ जैसे नेताओं को ताज्जुब हुआ, जब उन्होंने मुफ़्ती सईद को भाजपा से गठजोड़ बनाने की बातचीत करते हुए पाया.
मुफ़्ती का विचार था कि केवल पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार ही पाकिस्तान से अच्छे संबंध क़ायम कर सकती है, और केवल मोदी जैसे मज़बूत नेता ही कश्मीर समस्या हल करने की हिम्मत दिखा सकते हैं.
वो यह भी सोचते थे कि भाजपा से गठजोड़ का मतलब होगा, कश्मीर के लिए केंद्र का ख़ज़ाना खुल जाना. लेकिन कई लोगों की शिकायत रही कि कश्मीर की उम्मीदें पूरी नहीं हुईं.
इसलिए मुफ़्ती मोहम्मद की अचानक मौत के बाद महबूबा के ऊपर गठजोड़ तोड़ने का दबाव भी पड़ा.

वो दो महीने तक हीला-हवाला करती रहीं, पर बाद में उन्हें लगा कि मुख्यमंत्री बनने का मौक़ा नहीं छोड़ना चाहिए.
इसका नतीजा यह हुआ कि उनके और पीडीपी के वरिष्ठ नेताओं के बीच खाई गहरी होती चली गई.
कश्मीर का मौजूदा आंदोलन हुर्रियत के हाथों से भी निकल गया है. कश्मीर समस्या के बहुत सारे हल सुझाए जा चुके हैं.
उनमें से किन्हीं एक या दो को सामने रख कर, उनके इर्द-गिर्द बातचीत शुरू की जा सकती है. अगर ऐसा जल्दी नहीं किया गया, तो हालात और बिगड़ सकते हैं.
हुर्रियत के साथ बात करने में मौजूदा भारत सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं दिखती.
संकट के इस पूरे दौर में पीडीपी के नेतृत्व ने बाहर निकल कर कश्मीरी जनता के साथ कोई संवाद बनाने की कोशिश नहीं की है.

वक्फ़ जैसी प्रभावशाली संस्थाओं का इस्तेमाल करके भी आंदोलनकारियों को सम्बोधित करने की किसी योजना पर अमल नहीं किया गया है.
हामिद कर्रा का इस्तीफ़ा उस प्रक्रिया की शुरुआत हो सकती है, जिसे मैं पीडीपी की राजनीतिक साख के लगातार गिरते जाने के रूप में देखता हूँ.
कश्मीर में हम तीनों पत्रकार साथियों ने चार दिन तक सिविल सोसाइटी की अहम हस्तियों, पीडीपी के नेताओं, नेशनल कांफ़्रेंस के नेताओं, वहाँ के वरिष्ठ पत्रकारों, व्यापारी संगठन के मुखियाओं, हुर्रियत के नेताओं और साधारण लोगों से बात की.
उन सभी की बातों से साफ़ था कि पीडीपी का भारतीय जनता पार्टी के साथ गठजोड़ कश्मीर की ज़मीन पर नाकाम साबित हो रहा है और यह मौजूदा संकट की बड़ी वज़हों में से एक है.
(लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ में भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक और प्रो़फेसर हैं.) –वीवीसी हिन्दी